इस्लाम में शादी बंधन नहीं दो वयस्क स्त्री-पुरुष की आपसी सहमति से जीवन गुज़ारने का नाम है, ताकि सामाजिक ताना-बाना चलता रहे। दोनों के बीच अनुबंध को निकाह कहते हैं। जिसमें गवाह और वकील का होना जरूरी होता है। बेहद चंद लोगों की उपस्थिति में यह धार्मिक रस्म अदा करने की परंपरा रही है। लेकिन लड़के वाले की ओर से दावत-वलीमा इसलिए जरूरी माना जाता है कि समाज में इसकी घोषणा हो जाए। बारात के साथ लड़की वाले के घर जाना और निकाह में फिजूलखर्ची शरीयत के मुताबिक सरासर गलत है।
इस लॉकडाउन में वैसे भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना जरूरी है। वहीं रोजी-रोटी का संकट है। फिजूलखर्ची इस्लाम में हराम है और जरूरतमन्दों की मदद करना सवाब कहा गया है। इसलिए एदारा-ए-शरीया, इमारत शरीया, झारखंड आलिम काउंसिल और दारुस्सलाम आदि प्रमुख धार्मिक संगठनों ने शरीयत के अनुसार शादी-ब्याह के आयोजन पर जोर दिया है। इसके साथ ही कई आलिमों ने सख्त लहजे में कहा है कि निकाह में यदि फिजूलखर्ची और भीड़-भड़क्का हुआ तो सूबे के उल्मा ऐसे किसी भी आयोजन में शरीक नहीं होंगे। निकाह नहीं पढ़ाएंगे।
10 से अधिक लोग न हों निकाह में शामिल
झारखंड एदारा-ए-शरीया के नाजिम आला मौलाना कुतुबुददीन रिजवी ने एलान किया है कि वर और वधु दोनों पक्ष और गवाह आदि मिलाकर निकाह में 10 से अधिक लोग शामिल न हों। यह सुन्नत तरीका भी है और आज वक्त की मांग भी।
इस्लाम में बेजा खर्च करना सख्त मना
खानकाह मजहरिया मुनअमिया के सज्जादा नशीं अल्लामा शाह सैयद अल्कमा शिबली ने कहा कि इस्लाम में किसी भी चीज का बेजा इस्तेमाल करना मना है। कोरोना और लॉकडाउन ने शरीयत के मुताबिक ही जिंदगी जीने के अवसर दिए हैं।
बेटी के बाप पर बोझ डालना गैर-इस्लामी
दारुस्सलाम के निदेशक मौलाना डॉ तल्हा नदवी ने कहा कि इस्लाम में बारात का कॉन्सेप्ट ही नहीं। बेटी के बाप पर शादी के नाम पर आर्थिक बोझ डालना गैर-इस्लामी है। इस िलहाज से ऐसे आयोजनों में उल्मा का फैसला बिल्कुल सही है।
लॉकडाउन का पालन हर हाल में है जरूरी
मस्जिद-ए-जाफरिया के इमाम-खतीब हाजी सैयद तहजीबुल हसन रिजवी ने कहा कि आयोजन सामाजिक हो या धार्मिक, लॉकडाउन का पालन करना हर हाल में जरूरी है। वबा से बचाव के उपाय रसूलल्लाह ने भी बताए हैं।
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