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Friday, May 29, 2020

अदम्य साहस, दृढ़ इच्छाशक्ति व आत्मविश्वास के पर्याय जोगी

दृढ़ इच्छाशक्ति, अदम्य साहस और धारा के विपरीत तैरने वाला। ये शब्द अजीत जोगी के व्यक्तित्व की पहचान थे। मेरे ढाई दशक के संस्मरण को मैं संजोने का प्रयास करने लगा तो मेरे दिमाग में यही बातें आईं। देखिए कैसे-कैसे जोगी की राजनीति और जीवन में ये शब्द झलकते हैं-
कांग्रेस में सक्रिय होने के बाद से ही उनका रायपुर और छत्तीसगढ़ आना होता था। मेरा सतत संपर्क 1996 में उस समय हुआ जब अविभाजित मध्यप्रदेश में दिग्विजय सरकार ने देवभाेग की हीरा खदानों को डीबियर्स कंपनी को देने का फैसला किया और जोगी ने उनके इस फैसले के विरोध में मोर्चा खोल दिया था। सरकार के फैसले के विरोध में उन्होंने पदयात्रा की थी। जोगी कांग्रेस में थे। सरकार भी कांग्रेस की थी और दिग्विजय सिंह जैसा दबंग मुख्यमंत्री। बावजूद इसके पूरी ताकत से जोगी ने हीरा खदानों को डीबियर्स को देने का विरोध किया। विरोध भी सांकेतिक नहीं, बल्कि सड़क पर उतरकर। सरकार के संरक्षण में एक दिन डीबियर्स के प्रतिनिधि रायपुर पहुंचे। मुझे याद है, जोगी की टीम ने डीबियर्स के प्रतिनिधि मंडल को एयरपोर्ट से बाहर ही नहीं निकलने दिया था। उल्टे पांव उन्हें वापस जाना पड़ा था। और वहीं से जोगी ने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था।
सन 2000 में छत्तीसगढ़ का गठन हुआ। मध्यप्रदेश की सरकार का विभाजन होना था। छत्तीसगढ़ के 90 विधायक अलग हो रहे थे। जोगी उस समय न तो विधायक थे और न ही सांसद। आदिवासी एक्सप्रेस महेंद्र कर्मा चला रहे थे ताकि छत्तीसगढ़ का नेतृत्व आदिवासियों के हाथों में आए। विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ राज्य संघर्ष परिषद के जरिए राज्य निर्माण के लिए किए गए प्रयासों की बदौलत अपना दावा पुख्ता किए हुए थे और श्यामाचरण शुक्ल तीन बार के मुख्यमंत्री होने के कारण मजबूती के साथ डटे थे। इसी दौरान मेरे साथ बात हो रही थी तो उनका आत्मविश्वास अलग ही दिख रहा था। बाजी मारी भी उन्होंने, शुक्ल समर्थकों के भारी विरोध के बावजूद जोगी ही मुख्यमंत्री बनाए गए। मुख्यमंत्री बनाने का जिम्मा भी उनके घोर विरोधी माने जाने वाले दिग्विजय सिंह को मिला था।
मुख्यमंत्री बनने के पहले उनके पास समर्थकों का टोटा था लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ कांग्रेस की पूरी राजनीति को अपने में समाहित कर लिया। छह महीने के भीतर चुनाव लड़ना जरूरी था। चाहते तो किसी कांग्रेस के विधायक से सीट खाली करवाकर चुनाव लड़ सकते थे। लेकिन उन्होंने मरवाही के भाजपा विधायक से इस्तीफा दिलवा दिया। उन्हें कांग्रेस में लेकर वे मरवाही से विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे। उस दिन से आज तक मरवाही यानी अजीत जोगी। उन्हें इस बात से परहेज नहीं था कि कोई उनकी कितनी आलोचना कर रहा है। बल्कि वे इन बातों को और हवा देते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निवास का घेराव करने का ऐलान कर दिया था। अपने मंत्रियों और विधायकों के साथ बाकायदा उन्होंने दिल्ली में पैदल मार्च किया। प्रधानमंत्री निवास जाते हुए पुलिस ने उनको हिरासत में लिया था।

जोगी अपनी कार्यप्रणाली को लेकर खासा विरोध भी झेलते रहे लेकिन उन्होंने सरकार चलाने के दौरान सोच से कोई समझौता नहीं किया। 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान एक दिन मैं उनके साथ हेलिकाप्टर में था। उनके कुछ चर्चित और विवादास्पद फैसलों पर चर्चा हो रही थी। विद्याचरण शुक्ल के साथ हुए विवाद पर बात कर रहे थे। लेकिन वे डिप्लोमेटिक जवाब देने के बजाय सीधे कह रहे थे-राज्य में मुझको राजनीति करनी है तो मैं अपने हिसाब से करूंगा। किसी के दबाव में मैंने कभी राजनीति नहीं की है। इस दौरान वे इतने कांफीडेंट दिख रहे थे कि 90 में से 70 सीटें जीतने का दावा कर रहे थे।

कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को उन्होंने एक तरह से साइड लाइन करने की अपनी राजनीति को खुलेआम ही अंजाम दिया। इसी के चलते उनके विद्याचरण शुक्ल से खुला मतभेद हुआ। शुक्ल ने उनकी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला और एनसीपी में चले गए। समर्थकों की बड़ी फौज लेकर शुक्ल उनके खिलाफ लगे रहे और जोगी अपनी राजनीति करते रहे। लिहाजा 2003 में छत्तीसगढ़ की राजनीति में विवादों का बोलबाला हो गया। जोगी की सरकार चुनाव हार गई। पर भाजपा की सत्तासीन होने के पहले ही अजीत जोगी को मुख्यमंत्री रहते हुए कांग्रेस ने निलंबित कर दिया। उन पर आरोप लगा कि वे भाजपा के नवनिर्वाचित विधायकों को खरीदने का प्रयास कर रहे थे। ताकि वे ऐन-केन अपनी सरकार वापस बना सकें। तत्कालीन भाजपा नेता वीरेंद्र पांडेय ने उनकी आवाज को टेप कर लिया और उस समय केंद्रीय मंत्री रहे अरुण जेटली ने रायपुर में प्रेस कांफ्रेंस कर जोगी पर हमला बोल दिया।

फिर यह संयोग ही था कि 11 अप्रैल 2004 को जिस वाहन से जोगी के जीवन में सबसे बड़ी दुर्घटना हुई उसमें मैं खुद भी उस शाम 6 बजे तक था। 2004 के लोकसभा चुनाव में महासमुंद से विद्याचरण शुक्ल भाजपा के प्रत्याशी थे। जोगी को कांग्रेस ने मैदान में उतारा था। इसलिए वह देश की चर्चित लोकसभा सीटों में से एक हो गई थी। देश की सारी मीडिया का उस पर फोकस था। मैं भी उनके साथ 11 अप्रैल को उनके साथ सुबह से दौरे पर निकला था। यही कोई 8 बजे जब जोगी निवास से हम लोग निकले थे। करीब एक घंटे के सफर के बाद गाड़ी के ड्राइवर को झपकी आने लगी थी। जोगी ने उस ड्राइवर से कहा था-अगर तुमको नींद आ रही है तो तुम पीछे किसी गाड़ी में आराम कर लो। पर ड्राइवर का कहना हुआ कि नहीं साहब मैं चला लूंगा। खैर मैं कई सभाओं और छोटी-छोटी रैलियों को कवर करने के बाद शाम को वापस प्रेस आ गया। जोगी का काफिला गरियाबंद की ओर आगे बढ़ गया। देर रात एक्सीडेंट में उनके कमर के हिस्से में स्थायी चोट आई। वे चुनाव तो जीत गए लेकिन हमेशा के लिए वे व्हील चेयर पर आ गए। उसके बाद वे खुद व्हील चेयर पर रहे लेकिन कांग्रेस में उनके साथ कोई खड़ा होता नहीं दिख रहा था। कांग्रेस की राजनीति में वे धुरी बने रहे। पार्टी ने उनको कोई बड़ा पद नहीं दिया था लेकिन वे अपनी राजनीतक जोड़-तोड़ के जरिए शक्ति जुटाते रहे।

जोगी की राजनीति में विवादों का खासा बोलबाला रहा है। उनको यह पसंद नहीं था कि कोई उनकी उपेक्षा करे। जब वे नाराज होते थे तो खुलकर इजहार भी करते थे। यूपीए की पहली सरकार के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यहां आए थे। एक समारोह में सुबह जोगी को प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा करने को नहीं मिला तो उन्होंने बाद में दोपहर को रंगमंदिर के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यक्रम में मंच से नीचे बैठकर अपनी नाराजगी जाहिर कर दी। पीछे उनके समर्थकों ने ऐसा हंगामा खड़ा किया कि तत्कालीन प्रदेश प्रभारी मार्गरेट अल्वा को मंच से चेतावनी देते देखा गया था। पर जोगी अपने लोगों के साथ वहां अपनी नाराजगी जाहिर करते रहे।

जोगी को प्रतिद्वंद्वियों को उलझाकर रखने में मजा आता था। धारा के विपरीत चलने का उनका अपना शगल था। ये देखने को मिला 2013 के विधानसभा चुनाव के दौरान। तत्कालीन पीसीसी चीफ चरणदास महंत और नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे अपने हिसाब से टिकट वितरण में लगे थे। महंत के दिल्ली स्थित बंगले में जितनी भीड़ जुटती थी, उतनी ही जोगी निवास में भी होती थी। पहले चरण के टिकट वितरण के बाद जोगी ने दिल्ली में पर्यवेक्षकों और पार्टी नेतृत्व के सामने ऐसी दलीलें पेश कीं कि पूरी प्रक्रिया जोगी की रणनीति के आसपास होने लगी। उनके कई ऐसे समर्थक वापस टिकट पा गए जिनको मिलने की संभावना नहीं थी। इसी कड़ी में अंतागढ़ के उपचुनाव को जोड़ा जा सकता है जिसमें उनके समर्थक रहे मंतूराम पवार ने ऐनवक्त पर अपना नाम वापस ले लिया था। हालांकि अंतागढ़ उपचुनाव के दौरान हुई राजनीति ने जोगी की राजनीति में भूचाल ला दिया था। इसी को लेकर उनकी वर्तमान सीएम और तत्कालीन पीसीसी चीफ भूपेश बघेल से जोगी का विवाद निर्णायक हो गया। अमित जोगी को कांग्रेस ने बाहर निकाल दिया था और जोगी असमंजस में थे। धीरे-धीरे नई पार्टी की भूमिका तैयार होती रही। और फिर उन्होंने कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बनाने का धमाका कर भी दिया। मैं इस दौरान जब उनसे मिला था, उनका साफ कहना था-मेरी इच्छा है कि अब मैं अपनी पार्टी के बैनर तले छत्तीसगढ़ की सेवा करूं। अगर ऐसा मुझे अब दिल्ली नहीं जाना है। मेरे लिए रायपुर और छत्तीसगढ़ ही सब कुछ है। यहां के लिए जो कर सका, वही मेरी उपलब्धि होगी।

छत्तीसगढ़ी व्यंजन पर चाव से बात करते थे

जोगी वैसे तो किताबों में रमे रहते थे लेकिन उनको छत्तीसगढ़ी व्यंजन काफी पसंद थे। एक बार मेरे घर आए थे तब भोजन के दौरान खाने पर ऐसी बातें की जैसे वे मजे हुए खानसामा हों। फिर जब भी मौका मिलता वे छत्तीसगढ़ी व्यंजन पर बात करने लगते। जो चीज पसंद आ जाए उसको सालों नहीं भूलते थे। मुझे याद है एक दिन वे विधानसभा में विधायकों से घिरे थे और मुझे आते हुए देख लिए-गर्मजोशी से हाथ आगे बढ़ाए और विधायकों से छत्तीसगढ़ी में कहने लगे-छत्तीसगढ़ी खाने का आनंद लेना है तो इनसे मिलना।
-शिव दुबे, संपादक



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