
बलरामपुर जिले में स्थित डीपाडीह राजपुर से 35 किलोमीटर दूर है। यहां 8वीं व 13वीं शताब्दी की पुरातात्विक धरोहर हैं, लेकिन देखरेख के अभाव में ये अब खतरे में हैं। यहां मूर्तियों पर एक बड़ा पेड़ गिर गया, लेकिन इसके बाद भी संस्कृति और पुरातत्व विभाग के अफसरों ने इसकी सुध नहीं ली।
जबकि इन धरोहरों की सुरक्षा के लिए सरकार महीने में लाखों रुपए खर्च कर रही है। पेड़ गिरने से नंदी के अलावा कई मूर्तियां क्षतिग्रस्त हो गई हैं। बता दें कि डीपाडीह की मैथुन मूर्तियां खजुराहो शैली की हैं। करीब 10 वर्ष पूर्व यहां की दुर्लभ मूर्तियां चोरी हुईं थी। तब सुरक्षा के उपाय भी किये गए थे, लेकिन अब सुरक्षा के नाम पर एक ही चौकीदार है। हद तो यह है कि यहां बेशकीमती मूर्तियों में काई तक जम गई है। डीपाडीह कन्हर और गलफुल्ला नदी के संगम पर स्थित महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है। 1988 में डीपाडीह में प्राचीन पत्थरों और फिर मिट्टी की खुदाई के बाद यहां से अनेक प्राचीन और दुर्लभ कलाकृतियां दुनिया के सामने निकलकर आईं थी। डीपाडीह प्राचीन काल में भगवान शिव की आराधना का एक बड़ा केन्द्र था। कलचुरी और सामंती राजा भगवान शिव के बहुत बड़े उपासक थे।
खुदाई में सामने आया था यहां का इतिहास
सन् 1988 में जब पुरातत्व विभाग की नजर यहां पर पड़ी तो पहाड़ के टीले में नंदी की ये मूर्ति और सामंत राजा की ये प्रतिमाएं ही दिखाई दे रहीं थी। जैसे-जैसे खुदाई होती गयी डीपाडीह का इतिहास भी सामने आता गया। मंदिर में मंडप के एक कोने में मोर की सवारी करते कार्तिकेय, दूसरी तरफ गणेश, तीसरी तरफ सोलह भुजी विष्णु और चौथी तरफ महिषासुर मर्दिनी मां नवदुर्गा की प्रतिमा स्थित है। जो 10वीं शताब्दी की शिव महिमा को खुद ही वर्णित करती है।
अफसर नहीं आते सुध लेने, कागजों में हो रहा
काम डीपाडीह के पुरातात्विक धरोहरों के संरक्षण के लिए रायपुर में बैठकर अधिकारी कई प्लान तैयार करते हैं, लेकिन हकीकत में यहां काम नहीं दिखता। जबकि मूर्तियों का केमिकल ट्रीटमेंट बेहद जरूरी होता है जो कागजों में ही हो जा रहा है।
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